Sunday, October 24, 2010

Panchavati me Laxman by Maithilisharan Gupt

Presented here is a beautiful poem by National poet Maithilisharan Gupt. Its my facorite poem. It tells about an imaginary scene from Ramayana where Laxman is standing outside a hut gaurding Ram and Sita in a dark night. Gupt has written lot about Laxman and his wife. His poem "Sakhi wo mujhse kah kar jaate" about Laxman's wife Urmila is a marvel.
 (The sketch I did for the poem)
In "Panchavati", Gupt talks about the thoughts that come to Laxman's mind while gaurding his brother and his wife. He thinks about the materlistic world which believes that he along with Ram and Sita are leading a very harsh life in forest but, he says, actually they are much more comfortable while residing in the lap of mother nature. Its a beautiful poem with an excellent description about the beauty of nature. Please do find some time to go through this one:
 
"चारुचंद्र की चंचल किरणें, खेल रहीं हैं जल थल में,
 स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है अवनि और अम्बरतल में।
पुलक प्रकट करती है धरती, हरित तृणों की नोकों से,
मानों झीम रहे हैं तरु भी, मन्द पवन के झोंकों से॥

पंचवटी की छाया में है, सुन्दर पर्ण-कुटीर बना,
जिसके सम्मुख स्वच्छ शिला पर, धीर वीर निर्भीकमना,
जाग रहा यह कौन धनुर्धर, जब कि भुवन भर सोता है?
भोगी कुसुमायुध योगी-सा, बना दृष्टिगत होता है॥

किस व्रत में है व्रती वीर यह, निद्रा का यों त्याग किये,
राजभोग्य के योग्य विपिन में, बैठा आज विराग लिये।
बना हुआ है प्रहरी जिसका, उस कुटीर में क्या धन है,
जिसकी रक्षा में रत इसका, तन है, मन है, जीवन है!

मर्त्यलोक-मालिन्य मेटने, स्वामि-संग जो आई है,
तीन लोक की लक्ष्मी ने यह, कुटी आज अपनाई है।
वीर-वंश की लाज यही है, फिर क्यों वीर न हो प्रहरी,
विजन देश है निशा शेष है, निशाचरी माया ठहरी॥

कोई पास न रहने पर भी, जन-मन मौन नहीं रहता;
आप आपकी सुनता है वह, आप आपसे है कहता।
बीच-बीच मे इधर-उधर निज दृष्टि डालकर मोदमयी,
मन ही मन बातें करता है, धीर धनुर्धर नई नई-

क्या ही स्वच्छ चाँदनी है यह, है क्या ही निस्तब्ध निशा;
है स्वच्छन्द-सुमंद गंधवह, निरानंद है कौन दिशा?
बंद नहीं, अब भी चलते हैं, नियति-नटी के कार्य-कलाप,
पर कितने एकान्त भाव से, कितने शांत और चुपचाप!

है बिखेर देती वसुंधरा, मोती, सबके सोने पर,
रवि बटोर लेता है उनको, सदा सवेरा होने पर।
और विरामदायिनी अपनी, संध्या को दे जाता है,
शून्य श्याम-तनु जिससे उसका, नया रूप झलकाता है।

सरल तरल जिन तुहिन कणों से, हँसती हर्षित होती है,
अति आत्मीया प्रकृति हमारे, साथ उन्हींसे रोती है!
अनजानी भूलों पर भी वह, अदय दण्ड तो देती है,
पर बूढों को भी बच्चों-सा, सदय भाव से सेती है॥

तेरह वर्ष व्यतीत हो चुके, पर है मानो कल की बात,
वन को आते देख हमें जब, आर्त्त अचेत हुए थे तात।
अब वह समय निकट ही है जब, अवधि पूर्ण होगी वन की।
किन्तु प्राप्ति होगी इस जन को, इससे बढ़कर किस धन की!

और आर्य को, राज्य-भार तो, वे प्रजार्थ ही धारेंगे,
व्यस्त रहेंगे, हम सब को भी, मानो विवश विसारेंगे।
कर विचार लोकोपकार का, हमें न इससे होगा शोक;
पर अपना हित आप नहीं क्या, कर सकता है यह नरलोक!

मझली माँ ने क्या समझा था, कि मैं राजमाता हूँगी,
निर्वासित कर आर्य राम को, अपनी जड़ें जमा लूँगी।
चित्रकूट में किन्तु उसे ही, देख स्वयं करुणा थकती,
उसे देखते थे सब, वह थी, निज को ही न देख सकती॥

अहो! राजमातृत्व यही था, हुए भरत भी सब त्यागी।
पर सौ सो सम्राटों से भी, हैं सचमुच वे बड़भागी।
एक राज्य का मूढ़ जगत ने, कितना महा मूल्य रक्खा,
हमको तो मानो वन में ही, है विश्वानुकूल रक्खा॥

होता यदि राजत्व मात्र ही, लक्ष्य हमारे जीवन का,
तो क्यों अपने पूर्वज उसको, छोड़ मार्ग लेते वन का?
परिवर्तन ही यदि उन्नति है, तो हम बढ़ते जाते हैं,
किन्तु मुझे तो सीधे-सच्चे, पूर्व-भाव ही भाते हैं॥

जो हो, जहाँ आर्य रहते हैं, वहीं राज्य वे करते हैं,
उनके शासन में वनचारी, सब स्वच्छन्द विहरते हैं।
रखते हैं सयत्न हम पुर में, जिन्हें पींजरों में कर बन्द;
वे पशु-पक्षी भाभी से हैं, हिले यहाँ स्वयमपि, सानन्द!

करते हैं हम पतित जनों में, बहुधा पशुता का आरोप;
करता है पशु वर्ग किन्तु क्या, निज निसर्ग नियमों का लोप?
मैं मनुष्यता को सुरत्व की, जननी भी कह सकता हूँ,
किन्तु पतित को पशु कहना भी, कभी नहीं सह सकता हूँ॥

आ आकर विचित्र पशु-पक्षी, यहाँ बिताते दोपहरी,
भाभी भोजन देतीं उनको, पंचवटी छाया गहरी।
चारु चपल बालक ज्यों मिलकर, माँ को घेर खिझाते हैं,
खेल-खिलाकर भी आर्य्या को, वे सब यहाँ रिझाते हैं!

गोदावरी नदी का तट यह, ताल दे रहा है अब भी,
चंचल-जल कल-कल कर मानो, तान दे रहा है अब भी!
नाच रहे हैं अब भी पत्ते, मन-से सुमन महकते हैं,
चन्द्र और नक्षत्र ललककर, लालच भरे लहकते हैं॥

वैतालिक विहंग भाभी के, सम्प्रति ध्यान लग्न-से हैं,
नये गान की रचना में वे, कवि-कुल तुल्य मग्न-से हैं।
बीच-बीच में नर्तक केकी, मानो यह कह देता है--
मैं तो प्रस्तुत हूँ देखें कल, कौन बड़ाई लेता है॥

आँखों के आगे हरियाली, रहती है हर घड़ी यहाँ,
जहाँ तहाँ झाड़ी में झिरती, है झरनों की झड़ी यहाँ।
वन की एक एक हिमकणिका, जैसी सरस और शुचि है,
क्या सौ-सौ नागरिक जनों की, वैसी विमल रम्य रुचि है?

मुनियों का सत्संग यहाँ है, जिन्हें हुआ है तत्व-ज्ञान,
सुनने को मिलते हैं उनसे, नित्य नये अनुपम आख्यान।
जितने कष्ट-कण्टकों में है, जिनका जीवन-सुमन खिला,
गौरव गन्ध उन्हें उतना ही, अत्र तत्र सर्वत्र मिला।

शुभ सिद्धान्त वाक्य पढ़ते हैं, शुक-सारी भी आश्रम के,
मुनि कन्याएँ यश गाती हैं, क्या ही पुण्य-पराक्रम के।
अहा! आर्य्य के विपिन राज्य में, सुखपूर्वक सब जीते हैं,
सिंह और मृग एक घाट पर, आकर पानी पीते हैं।

गुह, निषाद, शवरों तक का मन, रखते हैं प्रभु कानन में,
क्या ही सरल वचन रहते हैं, इनके भोले आनन में!
इन्हें समाज नीच कहता है, पर हैं ये भी तो प्राणी,
इनमें भी मन और भाव हैं, किन्तु नहीं वैसी वाणी॥

कभी विपिन में हमें व्यंजन का, पड़ता नहीं प्रयोजन है,
निर्मल जल मधु कन्द, मूल, फल-आयोजनमय भोजन हैं।
मनःप्रसाद चाहिए केवल, क्या कुटीर फिर क्या प्रासाद?
भाभी का आह्लाद अतुल है, मँझली माँ का विपुल विषाद!

अपने पौधों में जब भाभी, भर-भर पानी देती हैं,
खुरपी लेकर आप निरातीं, जब वे अपनी खेती हैं,
पाती हैं तब कितना गौरव, कितना सुख, कितना सन्तोष!
स्वावलम्ब की एक झलक पर, न्योछावर कुबेर का कोष॥


- मैथिलीशरण गुप्त"

Monday, October 18, 2010

A day full of learning


Its been a long time since I have written for my blog. I keep listening to Ghalib's sher:
 "आते हैं ग़ैब से ये मज़ामीं खयाल में
ग़ालिब,  सरीर-ए-ख़ामा नवा-ए-सरोश है"
 which means "sometimes I just have some weird thoughts that the sound of scratching made by moving a pen on a paper is actually the sound of an angel" and moving pen on paper obviously means writing. There have been lots of changes in my life in past couple of months and I was hardly finding time to write.
It seems that God felt pity on me when He read that Valentines Day post of mine. I am engaged now and yes life has changed drastically. I have also joined a new company and now am back in north India. The work schedule is bit hectic so even though thoughts come to my mind but i dont get time to jot down. I have also purchased a new Nokia E series phone (and its pretty cool!). This post is being written through my handset so pls ignore typo errors.
One day I was having a discussion with my fiancee whether people should sleep to take some rest during the day or not. I was opposing this practice as I hardly sleep in the afternoons. She was putting her point strongly (and she indeed is quite good in that ;)). Then that day went like any other day. But something happened today at the office which made me think what I am going to say now.
I am a strong beliver of the thought that world is filled with teachers. What is required is will to learn. If you want you can learn from even a small baby but if you dont want then you wont learn even if God  Himself come and teach you. There are few guys in my team about whom I had some perception that they dont possess certain knowledge about a particular domain. But something happened today which made me feel that there is indeed something to learn from these guys too. May be you dont want to be like them but you can always appreciate the fact that they know what their job is.
Actually that is what is required from everybody. I remember that in my childhood days we had a chapter in our hindi book in which a line was written which means: "if the captain of a ship knows how to make the ship sail in strong tides then it doesnt matter if he is drunkard or a flirt".
The same logic applies to everybody. All of us are here to do our job and inturn teach others something if they want to learn.
What I figured out from this analysis is that everyday is full of learning. Each day should be targetted in learning which in turn enhances  either of these five things (or all of them): Devotion, Love, Karma, Character and Knowledge. And in the entire day you find numerous reasons to learn when you meet different peole. A day spent in solitude and without interaction is a day wasted, Right from the time when Sun God starts the clock of learning till the time He sets, we should not miss a single chance of learning because we are nothing. We are as special as everybody else in this world. So if we sleep during the daytime we would necessarily miss some chance of improving ourselves, dont we ? (wow, I got another chance to argue with her !!!)
If you didnt understand any of the crap that I have written then never mind,  just enjoy this latest sketch of mine of a recent hollywood flick "Machete".